गुलजार
गुलजार
जिंदगी मे कई ऐसे दौर होते हैं
जब हम किसीकी नही सुनते…
बचपन मे मां बापकी नही सुनते..
कॉलेज मे टीचरकी नही सुनते..
शादी के बाद बिवीकी नही सुनते..
अब बच्चे भी टोकेंगे कभी
और हम उनकी भी नही सुनेंगे..
लेकीन जिंदगी मे ऐसा कोई दौर नही गुजरा
जब उस शायर को नही सुना.
सफेद कपडो मे
इतना नेक आदमी कहा दिखता हैं आजकल..
आजकल भगवान कि आरती भी
किताबो से पढी जाती हैं..
मगर उस शायर कि नज्म
आ जाती हैं अपने आप जुबा पर..
बिना कोई किताब पढे.
नज्मे तो हवाओ मे तैरती रहती हैं..
एखाद अपने भी हाथ लगती हैं.
और हम कहते हैं हमारी हैं.
सोचता हू किसी रात
ऐसी एक नज्म हमारी हो जाये..
जिसे लेकर हम उस शायर के घर चले जाये..
दरवाजा खट खटा कर पुछे
ये नज्म मिली है..
लिखी तो मैनेही है.
मगर यकीन नही होता.
इतनी अच्छी लग रही हैं
तो सोचा शायद आपकी हो.
ऐसा नही होगा शायद.
लेकीन मुझे पता हैं
वो सफेद कपडो वाला शायर सांताक्लॉज हैं.
देर रात मेरे इर्द गिर्द
नज्मे बिछा कर जाता हैं..
मै सोचता हू अपनी हैं..
मगर मै जानता हू
ये उस शायर का अहसान हैं.
—अरविंद जगताप.
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