मैं खयाली पुलाव पकाता हू और वो
मैं खयाली पुलाव पकाता हू और वो रोटीयाँ
उसकी हर रोटी इक कहानी होती है
खूब दिल लगाकर लिखी हुई
उसकी उंगलियों मे ही कुछ बात है
करेला भी मिठा लगता है .
हां, मेरी भी उंगलीयां नाचती रहती है
कंप्यूटर के कि–बोर्ड पर
पर वो बात नही है
अधुरापन है..
कुछ बनाने की कोशिश चलती रहती है
मगर लगता नही के पक् गया है
हमेशा मेरे साथ ऐसा होता है
आज भी वही हुआ..
चूप बैठा रहा
कंप्यूटर के स्क्रीन की रोशनी
लेखक के चेहरे का नूर बदल देती है
ऐसी बकवास बाते बहुत सुझती हैं
जिनकीकोई खुशबू नही होती.
अचानक किचन से नयी कहानी की खुशबू आई
कुछ पक् गया था चूल्हे पर
जिसका सब को इंतजार था
और मेरी कहानी की किसी को कोई फ़िक्र नहीं थी…
सब को अपने पेट की पडी है…
(मै भी तो पेट की खातीर लिखता हूं )
पर मेरी कहानी का क्या हुआ?
किसी को नही पडी
मैं गुस्से से किचन मे चला गया
और उस से पूछा
इतनी खुशबू मेरी कहानियों मे क्यूँ नही होती?
उसने हसकर कहा
तुम्हारी कहानियों से सिर्फ तुम्हारा पेट भरता हैं
जिस दिन तुम्हारी कहानी रोटी बन जायेगी
उस दिन तुम्हारी कहानी का भी इंतजार होगा.
तुम्हारी कहानी मे भी खुशबू होगी.
बात तो बिलकुल सही थी.
सोचने लगा.
ऐसी कहानी लिखने मे कई साल लग जायेंगे
शायद पचास साल
पर इस दौरान चूल्हा कैसे जलेगा?
किचन की खुशबू भी बंद हो जायेगी तो…?
डर गया ..
लेकिन लगता है
दो तरह की कहानियां होती है दुनिया में
कुछ रोटी की तरह
लोगो की जिंदगी का अहम हिस्सा बन जाती है..
और बाकी कहानियां
लेखक की ‘रोजी रोटी’ का हिस्सा बन जाती है.
लोगों को उनसे कुछ लेना देना नहीं होता.
– अरविंदं जगताप.
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