तुमने कहा था मां
तुमने कहा था मां
बहुत बोलती हो तुमपर
बहस करती हो.
हर बात पे
उठाती हो सवाल
पूछती हो क्यों.
टिक पाओगी ?
ससुराल में ??
तब से मां
बस तब से
चुप रहना सीख लिया मैने
प्रश्न चिह्न की जगह
विराम लगाना सीख लिया
हर उठते हुए सवाल पर.
नहीं बोली थी मैं कुछ भी
जब बहुत कम करके
आंका गया था
तुम्हारे गाढ़े खून–पसीने से एकत्र
दहेज की वस्तुओं का मोल
नहीं बोली थी मैं
तब भी कुछ भी
जब उलाहने में
ज़िक्र लाया गया मायके का
और उठी थी उंगलियां
तुम्हारी दी हुई सीख पर
पी गई थी मैं मां,
अंदर ही अंदर
तेरे और अपने
अपमान का घूंट
पर चुप रही थी मैं मां,
मैने तुम से
कुछ भी तो नहीं कहा था.
मुझे टिकना था
रहना था वहां
जहां भेजा था तूने
डोली में बिठा कर मुझे.
मैं तब भी नहीं बोली थी मां
जब हर सुख–दुख में
मेरा साथ देने की
सौगन्ध उठाने वाला
तुम्हारा दामाद
फूट फूट के रोया था
दूसरी बेटी के जन्म पर
और जी भर के कोसा था
उसने मुझे और
उस नन्ही सी जान को
पी गई थी मैं
आंसुओं के साथ साथ
खून के घूंट भी
पर चुप रही थी मैं
कुछ भी तो नहीं बोली थी
मुझे साबित करना था
कि तुम्हारी बेटी
टिक सकती है,
रह सकती है
हर तरह की परिस्थिति में.
नहीं उंगली उठवानी थी मुझे
नहीं खड़े करने थे सवाल
तुम्हारे दिये गए संस्कारों पर.
और बोझ नहीं बनना था
मुझे फिर से
जिसे बड़ी मुश्किल से उतार
सुकून की सांस
ले पाए थे तुम सब.
पर मां
अब मैं चुप नहीं रहूंगी.
अब मैं बोलूंगी.
नहीं मारूंगी मैं हरगिज़
अपने ही अंश को
नहीं सहूंगी मैं कदापि
भ्रूण–हत्या के दंश को.
और हां !
तुम्हारे पढ़ाए पाठ के साथ–साथ
मैं अपनी बेटियों को
एक और पाठ भी पढ़ाऊंगी.
चुप रहने के साथ–साथ
मैं उन्हें बोलना सिखाऊंगी..
हां मां ,
उन्हें अन्याय के विरुद्ध
बोलना सिखाऊंगी.
– <strong>कवयित्री – डॉ.पूनम गुप्त</strong>
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